वो नज़र अब मुझको घूरती है, जो नज़र तब तुमको घूरती थी, इक नज़र उन मर्दों की मरती है, जिस नज़र से कोई निर्भय मरती है ।......रवीश कुमार Anchor- NDTV ( from one of his tweet)
वो तब भी एक अनजान चेहरा थी और आज जब वो अपनी साँसों के साथ नहीं है तब भी एक अनजान चेहरा ही है .फर्क सिफ इतना है कि इस अनजान चेहरे ने हमारे चेहरों में छुपे बेहिसाब मवाद और कृत्रिम असंवेदनशीलता को छेड़ दिया है. शर्मनाक ये है की - हमें इस बीमार सच्चाई को बेशर्मी से अपनाने में उसकी साँसों का उत्साह , जीने की ललक और भविष्य में साकार होने वाली संभावनाओं की बलि लेनी पड़ी.
उसके आखिरी शब्द-" मैं जीना चाहती हूँ", हमारे पाखंडी समाज जिसमे खाप पंचायतों जैसी बीमारियाँ पनप रहीं है , के ऊपर बेहिसाब तमाचों की बौछार करते रहेंगे. वही समाज जिसमें मैं , आप और हर वो इंसान जो औरत और इंसानियत के वजूद से भयाक्रांत रहता है, इस तमाचे को महसूस करते रहेंगे..
किसी भी बुराई को सामाज में रीति रिवाज का जामा पहनने में देर नहीं लगती- चाहे वो दहेज़ जैसी बुराई हो जिसे आज हम शादियों का अभिन्न अंग मानते हैं या सही - गलत के भंवर में लड़की को फंसाने की साजिश . इस बात में कोई शक नहीं होना चाहिए की अगर आज का दस्तूर चलता रहा तो कम से कम "छेड़खानी" जैसे भीरुता पूर्ण कृत्य आगे चलकर इसी समाज में मान्यता प्राप्त रिवाज़ बन जायेंगे .........
यह माना जाता है कि समय की गति मानव के विकास और उसकी सोच को अगली उचाईयों तक ले जाती है.पर आज "समय" का ये दावा खोखला मालूम होता है. प्राचीन वैदिक काल में जब ऊंच- नीच और जातिवाद का ज़हर नहीं पनपा था, महिलाओं को वो सब आज़ादी थी जिसकी आज के तथाकथित आधुनिक समाज में मात्र कल्पना ही की जा सकती है. अपनी इच्छानुसार वर को चुनना - "स्वयंवर", धार्मिक कार्यों से लेकर प्रशासनिक पदों पर पूर्ण प्रभाव के साथ आसीन रहना. और परिवार के महत्त्वपूर्ण फैसलों में भागीदार होना.
समय के साथ, ज्ञान के पुष्पों के साथ पाखण्ड के कांटे भी जन्म लेने लगे.और उन काँटों को हम उन पुष्पों से ऊंचा दर्ज़ा देने लगे-
जाने अनजाने ही सही उन कांटो को हम अपने ही घरों में बो रहे हैं
लड़की के जन्म के समय मातम मानना.
उसके वजूद को पनौती का नाम देना.
उसकी मुस्कान को अपने जीवन का दुःख समझना
उसके अधिकार को अनुचित महत्वाकांचा मानना
और अंत में दहेज़ के ताबूत में उसे लिटाकर आत्मीय सुख महसूस करना..
ये दोहरेपन का एक पहलू है..
आज जबकि हम छाती पीट- पीट कर इस बात का एहसास होने का दावा कर रहे हैं की- हम शर्मसार हैं, हमें अपनी गलतियों का एहसास हुआ है., तो हमें ये एहसास भी ज़रूर हुआ होगा की कहीं न कहीं लड़का और लड़की के बीच में भेदभाव करके हम उन्हें भविष्य के शोषक और शोषित के रूम में बड़ा कर रहे हैं.
प्रकृति ने हममें भेद किया ताकि हम अपने वजूद को एक त्यौहार की तरह मना सकें, न की भेद-भाव जो आज हम एक दुसरे के साथ मर्द औरत के नाम पर कर रहे हैं.
दामिनी निर्भय या जिस भी नाम से ये समाज आज उसको पुकारे जो उसको और उस जैसी हर महिला को दमित और भयभीत करने में विश्वास रखता है है, ईश्वर की गोद में बैठ कर देख रही होगी की हमारे आंसुओं में कितनी सच्चाई हैं और उनमें कितनी वेदना हैं.
मैं कोशिश करूंगा कि इन आंसुओं को महिलाओं के प्रति सम्मान और बराबरी में ढालूँ ....आप भी कीजियेगा....
और उस महान आत्मा को श्रधांजलि जिसने हमें अपने पाखंडी और कायर होने का एहसास कराया.....
दोबारा पढ़िए ............
वो नज़र अब मुझको घूरती है, जो नज़र तब तुमको घूरती थी, इक नज़र उन मर्दों की मरती है, जिस नज़र से कोई निर्भय मरती है ।......रवीश कुमार एंकर
Thought provoking notes...
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