Sunday, February 9, 2014

प्रकृति, प्रेम, वैलेंटाइन डे......... और हम !


"प्रेम का विपरीत घृणा नहीं होता है .घृणा मात्र उतना ही है कि जब प्रेम बुरा हो जाता है .प्रेम का विपरीत वास्तव में उदासीनता है - जब आप इस बात की परवाह नहीं करते की उस व्यक्ति के साथ क्या होता है और क्या नहीं होता "- 
                                                                                                    
                                                                                       "मेलुहा के मृत्युंजय ( Immortals of Meluha)"  से


फ़रवरी का महीना ! बसंत के आगमन का महीना! शिशिर और ग्रीष्म ऋतु के प्रणय का महीना ! जवान दिलों के पंख लगने का महीना! , और बेशक बूढ़े दिलों के आँखें तरेरने का महीना .!

कुदरत ने  शायद  साल के बाकी ग्यारह महीनों को इतनी शीतलता और कोमलता  से नहीं संवारा होगा जितना इस फ़रवरी के महीने को .नए साल के जोश को कुछ दिन और जीवन देने की  क़ाबलियत रखने  वाले इस करिश्माई महीने में एक दिन ऐसा भी है जो बाकी के दिनों के बीच में कोहिनूर के हीरे  सा दमकता है और अपने आकर्षण में प्रशांत प्रेम ,उमंग और नवीन भावों को एक सूत्र में बाँध देता है .जी हाँ आप सही निष्कर्ष  पर हैं - १४ फरवरी !!!वही कोहिनूर हीरा, जिसकी छटा देखते ही बनती है . इस दिन, हर कोई स्वयं को प्रेम   के अनन्य भावो से अभिव्यक्त  चाहता है और उन्ही भावों को अनुभव करना चाहता है  .


प्रकृति के इस निश्छल प्रयास में यदि दो चरम विपरीत ऋतुओं का संगम झलकता है तो इसी संगम से एक दम विलग एक नवीन मौसम का आगमन भी  दिखता है . पर क्या  प्रकृति की इन अनोखी  भावभंगिमाओं में हमारे लिए कोई दृश्य या अदृश्य सन्देश छुपा है ?. विचारों की तलहटी में .इसका उत्तर  निश्चित रूप से  हाँ में है .


यदि हम अपने  चारों ओर नज़र दौड़ाएं तो स्वयं को दो विपरीत भावों के प्रभावों से घिरा हुआ पाएंगे .. ये भाव है - घृणा और प्रेम के . यही भाव हमारी वास्तविक दुनिया में विभिन्न  भौतिक  और पराभौतिक स्वरूपों में विद्यमान हैं . और कहीं न कहीं इन्हीं दो भावों से हमारी मनोदशा और आचरण वास्तविक स्वरुप लेते  है .अब जब ये भाव इतने प्रभावी और निर्णायक होते हैं तो क्या ये मनुष्यों से परे एक समाज और उससे परे एक राष्ट्र और  विश्व को प्रभावित करने का सामर्थ्य रखते हैं? . यदि आज कि दुनिया और उसमे बसने वाले लोगों को को जानने समझने की कोशिश  करें, तो बेशक हाँ.


एक आदमी इस घृणा, चाहे वह स्वयं क़े लिए या दूसरों की लिए अर्जित की गई हो , के प्रभाव में अपने अंदर किस प्रकार का वातावरण सृजित कर सकता है , इसके विस्तार की आवश्यकता नहीं है. इसी तरह एक समाज और  राष्ट्र इसी नकारात्मक भाव के अधीन होकर  किस गति को प्राप्त होता है, वह हम अपने चारो ओर  एक सरसरी नज़र डाल कर या २४ घंटे ब्रेकिंग न्यूज़ का शोर करने वाले न्यूज़ चैनलों पर  देख सकते हैं.वहीँ दूसरी ओर, प्रेम की जादुई उपस्थिति  या उसके सरल प्रयासों से हम अपने अंदर और बाहर वो दुनिया रच सकते हैं जिसे अक्सर 'स्वर्ग ' की संज्ञा दी जाती है . जिसमे प्रेम अपने चरम शुद्ध प्रकार में प्रकाशमान होता है और हर प्रकार की  नकारात्मक घृणा की आंधी को अपनी मृदुल  ठंडी बयार से  शीतल कर देता है .


 बेशक आज हम उन चरम विपरीत परिस्थितियों का सामना नहीं करते, जो हम दशकों पहले युद्ध और नरसंहार की विभीषिका के रूप में हमारे सामने आती थीं. इन सभी मानवीय दुष्कृत्यों की पीछे घृणा का कोई न कोई  छद्म रूप किसी  अनजान  मुखौटे की रूप में हमारे सामने था.  पर आज वही  मुखौटा फिर से हमारे सामने है - किसी दमित सोच के  रूप में या किसी हिंसात्मक विचारधारा के  रूप में . आसान और आम  भाषा में हम  इसे  "तालिबानी सोच" या  फिर  "कट्टरवादी विचारधारा" का नाम देते हैं या फिर अपनी सहूलियत के मुताबिक़ कोई और नाम . जब तब यही सोच, यही विचारधारा  इंसानी मेल जोल , आपसी समझ और जज़बे को  कागज़ी मज़हब या बेफिजूल राष्ट्रीयता के बारूद से नेस्तोनाबूत कर देती हैं.


इन 'जंग लगी सोच' को पालने वाले अक्सर एक सुहाने एकांत की कीमत पर कब्रिस्तान की डरावनी ख़ामोशी को अलग अलग  "आहत धार्मिक भावनाओं " या तथाकथित "संस्कृति पर हमला" जैसी  उन्माद पैदा कर देने वाली शैलियों में बेचते हैं वो भी बिना रोक टोक के ....यदि विश्वास करना आसान न हो पाये तो इस बात की पुष्टि कम से कम इस  फरवरी के महीने में आसानी से हो सकती है. जब अचानक "संस्कृत्ति बचाओ अश्लीलता भगाओ" नाम की  सूनामी अक्सर गुलज़ार रहने वाले बगीचे और उसमे  घूम रहे, इश्क़ का ज़ज्बा रखने वाले जोड़ों पर पड़ती है, और उसकी  सजा उन्हें  चार लोगों के सामने शर्मसार होकर चुकानी पड़ती है . आजकल ये सूनामी माल्स, सिनेमा हाल और बेरोकटोक बातचीत का अड्डा रहने वाले कॉफ़ी हाउसेस पर खास तौर से कहर बरपाती है . ऐसी सामाजिक , माफ़ कीजिये ! घोर असामाजिक  सूनामी ( घृणा ) का  उद्गम स्थल कहाँ हो सकता है?. बेशक! उन तथाकथित सेनाओं ( संगठनों ) के सड़ चुके बदबूदार सिद्धांतों  और विद्रूपित मानसिकताओं से, जो ईश्वर के अवतारों का सहारा लेकर उसी ईश्वर के विधान को कुचलने का कार्य करते हैं जिसको हम 'प्रेम' के नाम से जानते और मानते हैं ".


प्रकृति, जो कभी अपने दृश्य या अदृश्य क्रियाकलापों से हमें समझती है कि किस प्रकार  दो विपरीत तत्वों को संगठित रख कर उन दोनों  तत्वों को अक्षुण्ण रखा जा सकता है .उसी प्रकार उसके संदेशों में यह भी छुपा होता है कि यदि दो विपरीत तत्वों का संगम होना है तो उनका अस्तित्व और उद्देश्य भी शुद्ध होना चाहिए .फिर चाहे वो तत्त्व प्रेम और घृणा की ही क्यों न हों . कहीं न कहीं उद्देश्यपरक घृणा , प्रेम को निरंकुश और उद्देश्यविहीन होने से बचती है . ऑक्सीजन और हाइड्रोजन तत्व विपरीत होकर भी एकदुसरे से संयोजित होकर अपने अस्तित्व और उद्देश्य को मानवजाति के लिए वरदान सिद्ध कर देते हैं .


प्रकृति इस  बसंतोत्सव  के माध्यम से स्वयं को   न केवल दो विपरीत ऋतुओं के सुखद मिलाप से  अभिव्यक्त करती है बल्कि अपने प्रेम को मानवीय स्पर्श भी देती है , यदि प्रकृति के इस प्रेम  और अभिव्यक्ति को किसी विशेष दिवस या प्रेम दिवस जिसे हम वैलेंटाइन डे  के रूप में मानते है  ( १४ फ़रवरी )  तो इसमें क्या हर्ज़ है. बजाये इसके कि इसे पाश्चात्य संस्कृति की आयातित बीमारी बताकर अपनी सांस्कृतिक विषमताओं पर पर्दा डाला जाये, बेहतर होगा कि कम से कम वैलेंटाइन्स - डे के  माध्यम से हमारे द्वारा  उन बंद और त्याग दिए गए प्रेम और घृणा के   रास्तों को फिर से खोजने और समझने की कोशिश की जाये , जिन्हें हम एक इंसान , समाज और देश के  रूप में काफी पहले विस्मृत कर चुके हैं  .


तनाव ,छलावों, हिंसा, और गम्भीर अवसादों से ग्रस्त इस दुनिया में यदि हम प्रकृति के महत्त्वपूर्ण तत्व- प्रेम ,को उसके अलग अलग रूपों में न समझ या खोज पाएं , जो  पशुओं द्वारा आसानी से आत्मसात किये गए है तो हमें फिर से इस बात पर गम्भीरता से  विचार करना होगा कि किस परिप्रेक्ष्य में हम इंसान स्वयं को बाकी प्रजातियों से उत्तम मानते  हैं ?


वैलेंटाइन्स डे की शुभकामनाएं !!