Sunday, April 12, 2015

ये दुनिया ही तय क्यों करे

ये दुनिया ही तय क्यों  करे  
 कि ये दिन है या रात है
इन चीखती चाहतों के बीच- खामोश
कुछ तेरे मेरे ज़ज़्बात हैं .
हैं आरज़ूओं के बोझ तले- दबे
पर ज़िंदा मेरे ख्वाब हैं .
ये नज़र उठती तो देख पातीं
इस इंसानी जहाँ  से आगे  भी
खूबसूरत एक कायनात है .

ये दुनिया ही तय  क्यों 
करे  
 एक इंसान की क्या औकात है .
जो जी गए हैं मरके भी
ये मौत भी उनकी ग़ुलाम है .
हों नफे -नुक्सान में लिपटी जिनकी बातें
उन्हें हर सांस की क्या पहचान है
कोई, एक मुस्कराहट  से उसका जहांँ बदल दे
ख़ामोशी से हर नज़र को ऐसे फ़रिश्ते को तलाश है 

 ये दुनिया ही तय क्यों  करे 
  कि ये दिन है या रात है
...

No comments:

Post a Comment