Monday, December 24, 2018

फिर कभी

हर रोज़ मेरे ख्यालों का , तुम -
अब क्यों हिस्सा बनते हो .

जुदा रास्तों के राही हैं -कब से ,
क्यों हमसफ़र सा रिश्ता रखते हो .

तुमसे छुपाएं और तुम्हीं से  कह दें, 

ये तो , वो  अब दौर नहीं .
दरम्यां , ऐतबार  तब  जो नज़रों में था ,
क्यों अब ऐसी आस रखते हो .

दायरा -ऐ- ज़िन्दगी , कुछ यूँ  बढ़ चला है अब ,

तो, ऐसी कोई गुंजाईश नहीं .
नए छोर तलाशें  अब अपने ,
क्यों  बेवजह  आज़माइश करते हो .

शायद, फिर किसी और दौर में , जब -

हम खुद से रू -बरू होंगे 
ये किस्सा अब यहीं रहने दो ,
क्यों दुनिया के पैंतरे हम पर चलते हो .

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